२८ अगस्त, १९६८

 

       वत्स, मजेदार बात थीं । मैंने यह सब टिप्पणियां रखी है । हम इन्हें देखेंगे । यह अभी समाप्त नहीं हुआ है, यह समाप्त नहीं हुआ है । और पता नहीं कब समाप्त होगा ।

 

 कोई समाचार है?

 

जी नहीं, माताजी । मैंने १५ अगस्तसे पहले, ११ अगस्तके आस-पास रातको कुछ देखा था । मैंने सफेद झागकी एक विशाल- काय, बहुत बढ़ी, लहर देखी, वह मकानसे भी बड़ी, बस विलक्षण; एक बहुत बड़ी, पूरी तरह काली नौका इस लहरद्वारा चलायी जा रही थी । लहर उसे धकेल रही थी । बह चट्टानोंपर लुढ़कती-सी लगती थी, पर उनके नीचे कुचली नहीं गयी । एक और भी नौका थी, बहुत छोटी, हल्के भूरे रंगकी । मुझे लगा कि वह बहुत ज्यादा तेज गतिसे जा रही थी । और झागकी यह विलक्षण लहर!

 

वहां बहुत-सी चीजें हों रहीं है.. । जानते हों, चेकोस्लोवाकियामें क्या हों रहा है?

 

    गतिशील है ।

     एक काली तौक !

 

      जी हां, एक बहुत बड़ी नौका और मजेदार बात तो यह है कि ऐसा लगता था कि वह काली चट्टानोंपर लुढ़क रही थी, परंतु कुचली नहीं गयी ।

 

    मुझे विश्वास है कि गति शुरू हो गयी है. । वह ठोस, दृश्य, संगठित उपलब्धि बननेमें कितना समय लेगी ' मालूम नहीं ।

 

     कुछ शुरू हुआ है... । ऐसा लगता है कि यह जातिका नया प्रवाह है, नयी सृष्टि या किसी सृष्टिका प्रवाह ।

 

     धरतीपर पुनर्व्यवस्था और एक नयी सृष्टि ।

 

    मेरे लिये चीजें बहुत तीव्र हों उठी । मेरे लिये एक शब्द बोलना भी असंभव हों गया, एक शब्द मी. जैसे ही मैंने बोलना शुरू किया

 


कि खांसी शुरू हो जाती थी, खांसी, खांसी । तब मैंने देखा कि यह निश्चय किया गया है कि मै न बोलूं । मै उसी तरह बनी रही और मैंने चक्रको चलने दिया । बादमें मै' समझ गयी । हम छोरपर नहीं है, बल्कि... (कैसे कहूं?) हम दूसरी ओर हैं ।

 

   एक समय था जब चीजें इतनी तीव्र थीं कि... साधारणत: मै धीरज नहीं खोती, परंतु चीज एक ऐसी स्थितितक पहुंच गयी जहां हर चीज, हर एक चीज मानों मिटायी जा रही थी । न सिर्फ यह कि मै बोल नहीं सकती थी, बल्कि सिर भी ऐसी स्थितिमें था जैसे मेरे सारे जीवनमें नहीं हुआ । सचमुच बहुत पीड़ा थी । मैं बिलकुल न देख पाती थी, मै बिल- कुल न सुन पाती थी । तब एक दिन (मै अपनी अनुभूतियां वादमें सुनाऊंगी), एक दिन चीजें सचमुच... सब जगह पीड़ा, कष्ट, शरीरने कहा, उसने सचमुच एकदम सहजभावसे और बहुत शक्तिके साथ कहा. ''मैं जिंदा रहनेके लिये तैयार हू, और अगर मै विलीन भी हों जाऊं तो भी मेरे लिये समान है, लेकिन अभी मै जिस अवस्थामें हू वह असंभव है । यह जारी नहीं रह सकती, जीवन हों या मरण, पर यह नहीं ।'' उस क्षणसे, वह कुछ अच्छा होने लगा । उसके बाद धीरे-धीरे, चीजें व्यवस्थित होने लगीं, अपने स्थानपर रखी जाने लगीं ।

 

    मैंने कुछ नोट लिख लिये । उनका कोई विशेष मूल्य नहीं है । मेरा ख्याल है शायद वे उपयोगी हों । (माताजी अपने पास रखी हुई मेजपर कागजोंके लिये नजर दौड़ाती हैं ।) फिर भी, मैं नहीं देखती, मै नहीं देखती, मैं केवल जानती हू ।

 

 ( २२ अगस्तका पहला नोट)

 

''कई घंटोंके लिये प्राकृतिक दृश्य अद्भुत था, उसमें पूर्ण सामंजस्य था ।

 

और बहुत समयतक विशाल मंदिरोंके आंतरिक दृश्य, जीवित- जाग्रत् देवोंके साथ दिखायी दिये । हर चीजका अपना कारण था, एक यथार्थ लक्ष्य था -- चेतनाके स्तरोंको अभिव्यक्त करना परंतु मानसिक रूप दिये बिना ।

सतत अंतर्दर्शन ।

प्राकृतिक दृश्य ।

इमारतें ।

नगर ।

 

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समस्त विशाल और विभित्रतापूर्ण दृश्य सारे दृष्टि-क्षेत्रको ढके हुए था और शारीरिक चेतनाकी स्थितियोंको दिखा रहा था । बहुत-सी, बहुत-सी इमारतें, बनते हुए बडी-बडी नगर... ''

 

 हा, जगत् का निर्माण हो रहा है, भावी जगत् का निर्माण हों रहा है । मै कुछ भी नहीं सुन रही थी, मै कुछ भी नहीं देख रही था, मै कुछ भी नहीं बोल रही थी मै' सारे समय वहां, अंदर निवास कर रही थी, सारे समय, सारे समय, रात-दिन । और फिर, जैसे ही मैं लिखने लायक हुई मैंने लिखा

 

        ''सभी पद्धतियोंकी इमारतें, सबसे बढ़कर नयी, वर्णनातीत । ये देखे हुए चित्र नहीं है, ऐसे स्थान हैं जहां मै हू ।',

 

 हां, यही बात है । मै समझाती हू क्या हुआ । यहां एक और टिप्पणी है जो आरंभ है

 

     ''प्राण और मनको धूमनेके लिये भेज दिया गया है ताकि भौतिक सचमुच अपने ही बलबूतेपर रहे ।',

 

 पूरी तरह अपने ऊपर,' अपने ऊपर । और तब मैंने जाना कि प्राण और मन हमें किस हदतक दिखलाते, सुनवाते और बुलवाते है । वह... मै देख सकती थीं, इस अर्थमें कि मैं हिल सकती थी, लेकिन वह बिलकुल धुंधला था । मै पहलेसे भी कम सुन पाती थी, यानी, बहुत कम -- कम -- बस, बहुत हीं कम, कभी-कभी पहलेकी तरह, कभी जरा-सी आवाज, बहुत दूर, जो दूसरे नहीं सुन पाते थे मैं सुन लेती थी; और जब वे बोलते थे तो मै न सुन पाती थी. ''तुम क्या कह रहे हों? '' मुझे नहीं मालूम । और यह दिन-रात, लगातार चलता रहा ।

 

कुछ दिनोंके बाद माताजीने इसमें यह जोड़ दिया

 

   ''प्राण और मन छोड़ गये है, परंतु चैत्यने बिलकुल नहीं छोड़ा । मध्यस्थ छोड़ गये हैं । उदाहरणके लिये, लोगोंके साथ संबंध (उन लोगों- के साथ संबंध जो यहां मौजूद है और उनके साथ भी जो यहां नहीं हैं), उनके साथ जैसा-का-वैसा बना है, बिलकुल वैसा ही, बल्कि पहलेसे भी ज्यादा निरंतर । ''

 

१०७


एक रात (तुम्हें यह बतानेके लिये कि सब कुछ अस्तव्यस्त था), लेकिन एक रात, मुझे कुछ तकलीफ थी; कुछ हो गया था और मेरे बहुत सख्त दर्द हो रहा था और सोना असंभव था; मै उसी अवस्थामें एकाग्र रही और रात पूरी हो गयी, मुझे लगा कि रात कुछ मिनटोंमें पूरी हो गयी । अन्य समय, दूसरे दिनोंपर, दूसरे क्षणोंमें मै एकाग्र रही ओर बीच-बीचमें समय पूछ लेती थी; एक बार मुझे लगा कि मै घंटों इस तरह रह चुकी हू । मैंने पूछा : कितने बजे है? सिर्फ पांच मिनट हुए थे... । तो हर चीज, मैं उल्टी-पुल्टी तो नहीं कह सकती, हर चीज भिन्न प्रकारकी थी, बहुत भिन्न ।

 

    २३ तारीखको... का जन्मदिन था । मैंने उसे बुलाया और वह बैठा हुआ था । अचानक! हां, अचानक सिर सक्रिय हों उठा -- ' 'सिर' ' नहीं और न ही ' 'विचार' ' ( माताजी अपने अंदरसे गुजरनेवाली धाराओं और लहरों- का संकेत करती हैं) मालूम नहीं इसे कैसे समझाया जाय; वह विचार नहीं था, वह एक प्रकारके अंतर्दशन, प्रत्यक्ष. दर्शन थे और तब मैंने उससे कुछ प्रश्न पूछे जिन्हें उसने लिख लिया । ( माताजी एक टंकित प्रति देती हैं) उसने केवल मेरे प्रश्न लिखे थे अपने उत्तर नहीं ।

 

      माताजीने कहा...

     २३ अगस्त, ११६८ तीसरे पहर

    ''क्या ३ जानते हैं कि द्रव्य कैसे बना?...

 

 मुझे पता नहीं, भौतिकने संभवत: 'क' वातावरणके संपर्कसे ये प्रश्न किये थे (वह वैज्ञानिक है), शरीरमें यह जाननेके लिये रस पैदा हुआ कि यह सब कैसे पैदा हुआ । और... वहां था, मैं जानती थी कि वह उत्तर दे सकता है इसलिये मैंने प्रश्न किये ।

 

 ''क्या वे जानते है कि द्रव्य कैसे पैदा हुआ?

यह कहना कि यह धन ऊर्जा है, केवल प्रश्नको टालना है ।

सच्चा प्रश्न है : परम प्रभुने अपने-आपको, द्रव्यके रूपमें कैसे

प्रकट किया?

 

 तुम देखते हों, ये विषय जो इतने महत्त्वपूर्ण, इतने विस्तृत, इतने उदात्ता, इतने... माने जाते हैं । मैं उनके बारेमें एकदम बचकाने लहजेमें, बिलकुल साधारण शब्दोंमें बोलती हू । (माताजी हंसती है)

 

   ''क्या वे जानते हैं कि 'धरती' कबसे  है?

 

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    जब तुम लाखों वर्षोंकी बात करते हो तो क्या तुम जानते हो कि इसका मतलब क्या है?...

 

उनके पास घड़ियां नहीं थीं, यह तो तुम्हें मालूम होना चाहिये! शरीरने बच्चेकी सरलताके साथ पूछा : तुम लाखों-करोड़ों वर्षोकी बात करते हो, तुमने उसे किस तरह नापा?

 

''क्या उन्हें विश्वास है कि हम जिसे एक वर्ष कहते हैं उसका हमेशा यही अर्थ था?... उन दिनों मेरे अंदर कालके सामान्य विचारकी अवास्तविकताकी चेतना थी । कभी एक मिनट अनंत मालूम होता था और कभी घटे-पर-घटे बीत जाते; सारा दिन निकल जाता था और कुछ लगता ही नहीं था ।

 

       क्या बे कहते हैं कि एक आदि था?

 

      (यहां 'क' माताजीको वह सिद्धांत बतलाते हैं जिसके अनुसार विश्व क्रमश: विस्तार और संकोचके कालोंमेसे गुजरता है । ऐसा लगता है कि माताजी इससे खुश हुइ ।)

 

हां, बे  ''प्रलय'' है ।

 

''हां, तो ये प्रश्न शरीर कर रहा है । मन कबका जा चुका है । परंतु शरीर, शरीरके कोषाणु, यूं कहें, प्राण और मनमेंसे गुजरे बिना सीधे सत्य सत्ताके साथ संपर्क जोड़ना चाहते हैं । यही हो रहा है ।

 

         इस कालमें मुझे दो-तीन बार ज्ञान प्राप्त हुआ था...

 

 ओह मैंने (ऐसे क्षण देखे हैं, दो-तीन बार, बिलकुल ही अद्भुत और क्षण - उन्हें भाषामें लाना असंभव है, असंभव है ।

 

      ''लेकिन जैसे ही तुम इस प्रकारकी अनुभूतिसे अवगत हो जाते हो....

 

 तुम्हें अनुभूति होती है और फिर तुम्हें पता लगता है कि तुम्हें अनुभूति हुई; और जैसे ही तुम्हें उसके होनेका पता लगता है कि वह धुंधली हो जाती है । कुछ चीज धुंधला जाती है ।

 

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     हां, आगामी जातिमें मानसिक वस्तुनिष्ठताका सारा तथ्य ही गायब हो जायगा ।

 

 हां, ऐसा लगता तो है ।

 

( 'क' की टिप्पणीमें आगे) : ''जैसे ही तुम्हें इस तरहकी अनुभूतिके बारेमें मालूम होता है, जैसे ही वह स्मृतिमें अंकित होती है उसी समय वह पूर्णतया मिथ्या हो जाती है ।

 

वैज्ञानिकोंके साथ मूलतः यही होता है । जैसे ही उन्हें जरा- सा ज्ञान प्राप्त होता है, उन्हें उसे सजाना संवारना पड़ता है ताकि उसे मानव चेतनाकी पहुंचमें ला सकें, मनके लिये बोध- गम्य बना सकें ।

 

         (जरा ठहरकर माताजी एक और प्रश्न करती है :) क्या ३ जानते हैं कि मनुष्यका अस्तित्व कबसे है?

 

          मनुष्यको विकसित होनेमें जितना समय लगा, अतिमानवको प्रकट होनेमें उससे कम समय लगेगा । लेकिन यह कोई तात्कालिक चीज नहीं है...

 

 वत्स, उस दिन, २३ तारीखको, मैं अभी... मै अभी लुगदीके जैसी ही थी! मैंने अपने-आपसे कहा. इस लुगदी जैसी स्थितिमेंसे  निकलकर उपयोगी व्यक्ति, ऐसा जो है और कार्य करता है, बनानेमें बहुत समय लगेगा । उससे भी मैंने यही कहा ।

 

        लेकिन उस टिप्पणीके अंतमें आप कहती है :

        ''हम जो कुछ कर सकते थे, कर चुके होंगे ।''

 

 हां, यह मैंने उसे सांत्वना देनेके लिये कहा था!

 

      तो, उसी रात, क्या हुआ देखो (माताजी अपने हाथसे लिखा हुआ एक कागज पकड़ाती है) :

 

रात, २६ और २७

 

        ''शरीरमें सब जगह, एक साथ अतिमानसिक शक्तिका सशक्त और लंबे समयतक प्रवेश... ''

 

शरीरके अंदर प्रवेश । हां, धाराका शरीरमें प्रवेश । यह कई अवसरों-


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पर हों चुका था, पर उस रात ( यानी परसों रात), यह अचानक हुआ मानों बस एक अतिमानसिक वातावरण ही हो, उसके सिवाय कुछ नहीं । और मेरा शरीर उसमें था । वह अंदर प्रवेश करनेके लिये एक ही समयपर सब जगह, सव जगह, सब जगह दबाव डाल रहा था -- सब जगह । तो यह कोई प्रवेश करने-वाली धारा नहीं थी : यह तो वातावरण था जो हर जगहसे उंडेला जा रहा था । यह कम-से- कम तीन-बार घंटेतक चलता रहा । केवल एक ही मागथा जिसमें उसने मुश्किलसे प्रवेश किया था, यहांसे यहांतक ( गले और सिरके ऊपरी भागके बीच) वहां भूरा-सा और निस्तेज दिखा रहा था, मानो धारा वहापर कम प्रवेश कर रत्न थी.. । लेकिन उसके सिवा, बाकी सब, सब . वह प्रवेश करता गया, करता गया, करता गया...! मैंने ऐसी चीज कभी नहीं देखी थी, कमी नहीं! यह घटों रही -- घंटों, पूरी तरह सचेतन रूपमें ।

 

    तो जिस समय बहु चीज आयी और जितने समय रही, उस सारे समय मै सचेतन रहीं ''ओह! इसके लिये था, इसके लिये था; यह था, तो यह था जो 'तुम' मुझसे चाहते थे । हे प्रभो, इसके लिये, इसके लिये तुम यह चाहते थे । '' उस समय मुझे ऐसा लगता था कि कुछ होनेको है ।

 

     मैं उस रात इस चीजके लौटनेकी आशा कर रही थी, पर कुछ हुआ नहीं ।

 

    वह पहली बार था । घंटोंके लिये । उसके सिवा और कुछ भी न था । और यह (शरीर), यह सोखनेवाले स्पंजकी तरह था ।

 

      केवल सिर, यह अभीतक भूरा, निस्तेज है -- भूरा और निस्तेज । फिर मी, पिछले  कुछ महीनोमें शरीरको जो कुछ हुआ है. उस सबका स्पष्ट अंतर्दर्शन था, और... लगभग एक आशा थी । प्रायः एक आशा थी, मानों कोई मुझसे कह रहा था कि कुछ हो सकता है । बस इतना ही ।

 

     और यह मानों शरीरने जो कहा उसका उत्तर था ( शायद दो-तीन दिन पहले), वही, जो मैंने शुरूमें तुमसे कहा था : कि यह शरीर पूरी तरहसे विघटित हों जानेके लिये तैयार था ( यह पूर्ण समर्पण था), और बह जीते रहनेके लिये भी पूरी तरह तैयार था, चाहे परिस्थितियां कैसी मी क्यों न हों -- परंतु उस अवस्थामें नहीं, उस अपघटनकी अवस्थामें नहीं । तो उसका दो दिनतक कोई उत्तर न मिला और उसके बाद आया यह 'प्रवेश', यानी, दूसरे ही दिनसे मुझे कुछ अच्छा लगने लगा, मैंने... मैं खड़ी भी न रह सकती थी! मेरे अन्दर संतुलनका भाव न था । किसीको मुझे

 

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 पकड़ना पड़ता था! मैंने संतुलन भाव खो दिया, मैं एक कदम न रख सकती थी । इसपर मैंने विरोध किया था और अगले दिन सवेरेसे ही, वह वापिस आने लगा ।

 

     तब आयी २३ अगस्त । मैं 'क'से मिली । मैंने देखा कि जब वह उपस्थित था तब शरीरको काफी रस था; यह मन या प्राण न था वे जा चुके थे । मालूम नहीं, तुम मेरे मतलबको पकडू पा रहे हों या नहीं ।

 

           जी हां, यह विलक्षण है ।

 

 बिना मनका, बिना प्राणका शरीर । जब 'क' आया तो यही अवस्था थी । केवल ये प्रत्यक्ष दर्शन थे (नगर, इमारतें, मन्दिर), वह अन्तरात्माकी अवस्थाओंमें जीता था : औरोंकी आन्तरात्मिक अवस्थाए भी थीं । धरती- की आन्तरज्मिक अवस्थाएं, आन्तरात्मिक अवस्था.. । ये आन्तरात्मिक अवस्थाएं बिंबोंमें अनूदित होती थी । यह मजेदार था । मै. यह नहीं कह सकती कि यह मजेदार न था । यह मजेदार था; पर भौतिक जीवनके साथ कोई संपर्क न था, बहुत ही कम था : मै. मुश्किलसे कुछ खा पाती थी, मै चल नहीं पाती थी.. लेकिन यह कुछ ऐसी चीज थीं जिसके साथ अपने-आपको व्यस्त रखना जरूरी था ।

 

      और तब 'क' के संपर्कसे. शरीरने इन सब बातोंमें रस लेना शुरू किया, सहज रूपसे प्रश्न करने शुरू किये, उसे पता न था कि क्यों । वह पूछता जाता था, पूछता जाता था. ''हां, तो व्यक्ति डस तरह बना है... ।'' तब उसे मजा आने लगा ।

 

     इसमें कुछ समय लगेगा ।

 

    परसों जब यह 'प्रवेश' आया तो मैंने अपने-आपसे कहा ''आह! '' मैंने आशा की थी कि चक्र तेज चलेगा और शरीर जल्दी ही निकल आयेगी, पर आजकी रात, कुछ भी नहीं हुआ । इसीलिये मै कहती हूं कि इसमें कुछ और समय लगेगा ।

 

      लेकिन अजीब बात है, आपकी २६-२७ की टिप्पणीमें यह भी लिखा है :

 

      ''मानों सारा शरीर उन शक्तियोंमें नहा गया जो जरा-सी रगड़के साथ हर जगह एक ही समयमें प्रवेश कर रही थीं.. .'' और फिर आप कहती है :

 

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     ''सिरसे नीचे गरदनतकका हिस्सा सबसे कम ग्रहणशील था ।'' यह अजीब बात है कि सबसे कम ग्रहणशील था ।

 

नहीं, यह सबसे ज्यादा मानसिक भावापत्र हिस्सा है । मन रुकावट डालता ??

 

    यह अजीब बात है कि आपके लिये जब कभी महान् क्षण, या यूं कहूं, बड़े प्रहार आये हैं तो हर बार, मन और प्राण बह गए । पहली बार भी, १९६२ में ।

 

 हा, हर बार ।

 

         मै जानती हू, यह ऐसा है मन और प्राण यंत्र. रहे है... 'द्रव्य' को पीसनेके लिये -- पीसने, पीसने और हर तरह पीसनेके लिये, प्राण अपने सवेदनोंद्वारा, मन अपने विचारोद्वारा -- पीसनेके लिये, पीसनेके लिये रहे है । लेकिन मुझे लगता है कि ये बस गुजरनेवात्ठे हैं । इनका स्थान चेतना- की अन्य अवस्थाएं ले लेंगी।

 

        देखो, यह वैश्व विकासकी एक अवस्था है, और वे... ये ऐसे यंत्रोंकी तरह झड़ जायेंगे जो अब उपयोगी नहीं रहे ।

 

    ओर फिर, मुझे इस बातका ठोस अनुभव हुआ कि यह द्रव्य क्या है जो प्राण और मनके द्वारा पिसा जाता है, लेकिन प्राणके बिना और मनके बिना... । यह एक अलग ही चीज होती है ।

 

     लेकिन ''आन्तरात्मिक स्थितियोंका यह प्रत्यक्ष दर्शन'', उसमें... अद्भुत चीजें थी! कोई, कोई मानसिक कल्पना इतनी आश्चर्यजनक नहीं हो सकती -- नहीं, कोई भी नहीं । मै ऐसे क्षणोंमेंसे गुजरी... तुम जो कुछ अनुभव कर सकते हो, मनुष्य के रूपमें देख सकते हों, वह सब उसकी तुलनामै कुछ नहीं । ऐसे क्षण थे.. एकदम अद्भुत क्षण । लेकिन विचारके विना, बिना विचारके ।

 

अभी और कई टिप्पणियां हैं जो मैंने आपको नहीं सुनायी । आप कहती हैं :

 

   ''अधिकतर मनुष्योंमें चेतना संवेदनसे शुरू होती है । शरीरके लिये सभी संवेदन मानों कम कर दिये गये थे, बल्कि दबा दिये गये थे : दृष्टि और श्रवण मानों परदेके पीछे थे । लेकिन सामंजस्य या असामंजस्यका प्रत्यक्ष दर्शन बिलकुल स्पष्ट था । उनका


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      अनुवाद बिंबोंमें होता था: "बिचार नहीं, 'लगना' भी नहीं ।''

 

 मैंने तुमसे कहा था, मैंने देखा है... वह ''देखा'' नहीं है जैसे चित्र देखा जाता है : अपने अंदर, एक विशेष स्थानपर होगा । मैंने कमी कोई चीज इतनी सुन्दर नहीं देखी या अनुभव की । उसका अनुभव मी नहीं किया गया, वह... पता नहीं कैसे समझाया जाय । वे क्षण एकदम अद्भुत थे, अद्भुत, अनोखे । और यह सोचा नहीं गया था, मै वर्णन भी नहीं कर सकती थी -- कैसे वर्णन करूं? तुम वर्णन तमी कर सकते हो जब सोचना शुरू करो ।

 

          एक और टिप्पणी है :

 

           ''शरीरकी चेतनाकी स्थिति और उसकी क्रियाका गुण उस व्यक्ति या उन व्यक्तियोंपर निर्भर है जिनके साथ वह......

 

ओहो! यह, यह बहुत मजेदार था । वह बहुत मजेदार था क्योंकि मैंने देखा कि वह ऐसा था (फिल्म खोलनेकी-सी मुद्रा), वह बदल रहा था । कोई मेरे नजदीक आ रहा था : उसमें परिवर्तन आ गया । किसीको कुछ हों गया. उसके अंदर परिवर्तन ग गया । ख और ग मेरे नजदीक थे । वत्स, एक दिन. मालूम नहीं, उन्हें क्या हो गया : वे अतिमानव थे; एक दिन जब शायद देखनेमें लगता था कि मैं खतरेमें हू, मुझे नहीं मालूम; एक दिन, पूरे दिन, बिंब (''बिंब'' नहीं. वे जगहें जहां मै 'मी), वह ऐसे अद्भुत रूपमें सुंदर, सामंजस्यपूर्ण.. .वह अकथनीय, अवर्णनीय था । और उनकी चेतनाका जरा-सा भी परिवर्तन, ओह, वहां सब कुछ बदलने लग जाता! वह एक प्रकारका बहुमूर्तिदर्शी (कलाइडस्कोप) था जो दिन- रात चलता रहता था । अगर कोई उसे लिख सकता... । वह अनोखा था । वह अनोखा था । और शरीर उसके अंदर था, लगभग छिद्रित -- छिद्रित जिसमें कोई प्रतिरोध न था, मानों वह चीज उसके अंदरसे छन रही हों । मैंने अधिक-सें-अधिक अद्भुत समय देखा... मेरा ख्याल है धरतीपर कोई भी जितना अधिक-सें-अधिक अद्भुत समय देख सकता हैं ।

 

      और वह इतना सार्थक और इतना द्योतक था । इतना अर्थपूर्ण । एक रात, दो घंटोंके लिये, ये मंदिर जिनके बारेमें मैं कह रही हू (भौतिक नहीं), इतने विशाल, इतने भव्य थे... और, वत्स, मूर्तियां नहीं, जीवित- जाग्रत् देव! और मुझे मालूम है वह क्या है । और फिर 'अनन्तता'की चेतनाकी स्थिति, आह!.. मानों परिस्थितियोंके ऊपर, बहुत ऊपर ।

 

 वहां अनोखी चीजें थीं, परन्तु कहा कैसे जाय?... असंभव, असंभव, कोई चेतना उसे लिख सकनेके लिये पर्याप्त नहीं ।

 

     टिप्पणीमें आगे लिखा है :

 

    ''उसकी (शरीरकी) चेतनाकी पीठ और उसका क्षेत्र और साथ ही उसके कार्य-कलापके गुण वहांपर उपस्थित लोगोंके अनु- सार बदलते है । यह सब प्रकारकी बौद्धिक क्रियाओंसे होता हुआ अत्यधिक द्रव्यात्मकसे लेकर सबसे अधिक आध्यात्मिक स्तरतक पहुंचनेवाला सोपान है ।

 

          परंतु भागवत उपस्थितिका प्रत्यक्ष वर्शन सदा बना रहता है और चेतनाकी सभी स्थितियोंके साथ जुड़ा रहता है -- वे चाहे जो भी हों.......

 

 आहा! मुझे पता लगा कि हर जगह, सारे समय, सारे समय कोषाणु अपना मंत्र जप रहे थे, सारे समय, सारे समय ।

 

      ''और मंत्र सहज रूपसे एक प्रकारकी ''तरल'' शांतिमें अपनेआप जपा जा रहा है ।''

 

 इस कारण यह नहीं कहा जा सकता कि वह पीड़ा थीं, यह नहीं कहा जा सकता कि वह बीमार था, यह संभव नहीं है, संभव नहीं है ।

 

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